यदि तुम भावना के साथ कार्य और जीवन साधना को प्रधानता दो तो भविष्य मैं बना सकता हूँ।
ज्ञान और विवेक से अपने मन को हमेशा शांत रखो, भले ही झगड़ा हो पर अन्दर से तो शांत रहो।
संसार तो एक मेला है। इसमें तुम्हारी प्रशंसा करने वाले भी मिलेंगे और निन्दा करने वाले भी मिलेंगे फिर विचलित क्यों होते हो?
साधना तो तुम्हारी व्यक्तिगत चीज है। आत्मिक खुराक है और मुख्य प्रयोजन है। इसे तो अंधेरे में, उजारे में, बैठ कर, सो कर, कहीं भी और कभी भी किया जा सकता है।
नाव में बैठ कर नदी पार करते हो, इसमें लहरें आती हैं तो नाव को कस कर पकड़ते हो पर वास्तव में नाव से रंच मात्र भी आसक्ति नहीं है। वैसे ही संसार में रहकर तमाम कर्मों का निर्वाह करो, पर आसक्ति का महारोग मत पालो।
सद्गुरू अनुसंधान के बीहड़, संकट ग्रस्त और एकाकी जीवन में पथ प्रदर्शक और सहयात्री है, जो साधकों को निरन्तर लक्ष्य की याद दिलाते हुये उनमें साहस और तितिक्षा भरता रहता है।
कोई निन्दा करे तो विचलित और कुपित होने से साधना में ही खलल पड़ेगी। वास्तव में साधक का रूप कैसा होता है? साधक रूपी मनुष्य का आभूषण है रूप और उसका अलंकार है गुण। गुण का गहना है ज्ञान और ज्ञान का आभूषण है क्षमा। इस बात को अच्छी तरह से समझ जाओगे तभी साधना में उन्नति कर सकोगे।
साधक रूपी मनुष्य तो एक शिल्पकार है उसकी जीवात्मा एक अनगढ़ पत्थर है। वह अपनी साधनाओं के द्वारा उस पत्थर को तराश कर एक मूर्ति का निर्माण करता है जिसका नाम है पूर्णता अर्थात् मोक्ष।
मानव जीवन का लौकिक चिन्तन, विचार और कार्य क्षेत्र यह संसार है। पूर्णता तो इस पूरे मार्ग को पार करके ही वही पहुँचने पर मिलती है जहाँ मनुष्य ब्रह्म से अलग हुआ है। उस ब्रह्म से अलग होने के बाद वह कर्म करता हुआ, धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों चिन्तनों का विचार करता हुआ, जब मोक्ष का भी चिन्तन करता है, तब वह पुनः ब्रह्म में लीन हो जाता है।
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