पूर्णता और दिव्यता की पावन भूमि का न नामान्त है सिद्धाशəven यह आध्यात्मिक उत्कर्ष की वह दिव्य तपः स्थली है, जहाँ साधक अपनी साधनाओं में अमृत सिद्धि प्राप्त करने के बाद सशरीर अथवा देहपात के पश्चात् भी पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त करके न केवल स्वयं दिव्याभास से परिपूर्ण बनता है, अपतिु विश्व कल्याण के अपूर्व सामर्थ्य को प्राप्त करके अपनी भावी पीढि़यों जीवन की स सर्वतोगामिनी उन्नति का मार्ग पшить
तुम सब gtress हो हो पूज्य गु के स स स स में अच अच आवेग स स स स स स स स स ही ही ही समझते ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक दीक द द द द द द द द द द द द द द द द द द द द हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो द हो मह मह, मोटे पोखरों से पानी की आशा लिये भटकते रहते हो।'
अभी तो चेत जाओ— ये बहुचा चमत्कार दिखाने वाले तथाकथित गुरू तुम्हें कुछ नहीं दे सकते— देंगे ये तब, जब प प प कुछ होग सकते सकते देंगे ये तब जब प प कुछ होग दे सकते देंगे ये तब जब प कुछ होग दे सकते उनकी खुद की झोली फटी है, वे तुमको क्या देंगे—?
हम योगियों औासियों को को वास्तव में तुम लोगों बुद बुद्धि पर हंसी आती है।।।।।।। तुम्हारी दशा तो उसी मूर्ख भिखारी की तरह है, जिसे दैवयोग से हीरो की थैली तो मिली और उसने कंचे समझ कर उन्हें रास्ते में बैठे बच्चों में बांट दिया— हम जब-जब तुम्हारी स्वार्थपरता, चालाकी और मक्कारी देखते हैं, तो हमें तरस आता है कि ये लोग हैं जो जो ऐसी देवगंग देवगंग के ह ह क भी अपवित्र के अपवित्र ही हैं, विकारों से युक हैं हैं।।।।।।।
मुझे ऐसे शिष्यों आवश आवश्यकता नहीं है, जिनमें क कXNUMX हो, विरोध सहने की क्षमता न हो, जो ज ज सी विप स स्थिति प्राप त विचलित हो ज विप। स्थिति प प प प o मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं, जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौसला होता है, जो विपरित परिस्थितियों पर छलांग लगाकर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बन्धनों को झटक कर भी मेरी आवाज को सुनते हैं— और ऐसे शिष्य, स्वतः मेरी आत्मा का अंश ज जाते हैं, उनका नाम स्वतः ही मे होठों से उच्च होने लगत लगत है औ औ मे मे हृदय गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह गह से गह गह गह से
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समर्पण हाथ जोड़ने से हो सकत सकता और न गु गु गु आ आ आ उतXNUMX से सकत सकत है है।।।।।।।।।।। समर्पण का तात्पर्य है कि गुरू जो आज्ञा दे, उसका बिना नानूच किये पालन किया जाये।