संसार में सब कुछ पूर्ण ही है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है एवं पूर्ण से पूर Закрыть किसी भी मनुष्य को जन्म देते समय परमात्मा न े उसे अपूर्ण बनाया नहीं, वरन् अज्ञानता वश उसे अप नी पूर्णता का बोध विस्मृत हो गया, जिससे उसके जी वन में निराशा, उत्साहहीनता और दैन्य की स्थित ि व्याप्त हो गई।
सद्गुरू अपने शिष्य को अपने आत्म शक्ति के मा ध्यम से यही एहसास कराने का प्रयत्न करते हैं क ि तुम सर्व सक्षम हो, सर्व शक्तिमान हो, तुम असहाय नहीं हो, दीन-हीन नहीं हो, पशुवत स्वरूप नहीं हो, क मजोर नहीं हो, तुममें क्षमता है , . पने प्राणों से शिष्यों के खून को ऊर्जित किया ह ै। गुरू सागर में शिष्य रूपी नदी विलीन होकर ही अप ने आप को पूर्ण अनुभव करती है।
साधक जीवन रहते ही सिद्धाश्रम के दर्शन कर सके, स Просмотреть еще से साक्षात्कार कर सके और भौतिक जीवन व्यतीत क रते हुये भी पूर्ण शिवमय रह सके, आनन्दमय रह सके, यही जीवन की पूर्णता है, जो गुरू की आत्म शक्ति के पूर्ण स्थापन से ही संभव है।
अत: अपने शिष्य को पूर्णता अहसास कराने के लिये सद्गुरूदेव यह दीक्षा प्रदान करते हैं। जिससे शिष्य पूर्णता को साक्षीभूत कर सदगुरूम य बन सके और जब शिष्य अपने पूर्णत्व से साक्षात ्कार कर लेता है तो फिर उसे समस्या, बाधायें, रू कावटें, तनाव कुछ भी उद्वेलित नहीं कर सकते। इस प्रकार का पूर्णत्व प्राप्त करने के उपरां त शिष्य संसार में अजेय बन जाता है, उसके ज्ञान औ र चेतना के समक्ष युग नतमस्तक होता है, हर जगह उस े सम्मान प्राप्त होता है। Закрыть बनाकर पूरे ब्रह्माण्ड में अपना सर्वस्व विस हो जाता है क्य शक्ति को आत्मसात करन े की प्रक्रिया से सरोबार होता है।
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