शिष्य और अनुयायी में बहुत अंतर है। अनुयायी केवल गुरू की क्रियाओं को दोहराना अपना कर्तव्य समझता है, जबकि शिष्य केवल गुरू की क्रियाओं को दोहराता नहीं। वह गुरू से ज्ञान प्राप्त करता है तथा अपने ही मार्ग पर आगे बढ़ता है इस चिंतन के साथ कि गुरू की शक्ति उसे प्रेरित कर रही है।
शिष्य किन्ही धर्म के नियमों या किसी पथ या सम्प्रदाय से बंधा नहीं होता। वह जीवन में बढ़ता है या कुछ करता है तो अपनी चेतना से प्रेरित होकर।
शिष्य को निरंतर यह एहसास होता है कि उसे घीसे पिटे रास्तों पर नहीं चलना, उसे जीवन में कुछ अद्वितीय बनना है और वह यह भी जानता है कि अद्वितीयता की कुंजी है गुरू द्वारा प्रदत्त चेतना तथा वह निरंतर उसे प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता रहता है।
शिष्य के लिये गुरू की ओर से श्रेष्ठ उपहार कोई बड़ाई के दो शब्द नहीं, प्रशंसा नहीं, कोई पुरस्कार या कीमती वस्तु नहीं। उसके लिये तो श्रेष्ठ उपहार होता है गुरू का आशीर्वाद जो कि गुरू के मुख से तब प्रस्फुटित होता है, जब गुरू देख परख लेता है कि शिष्य चेतना प्राप्त करने के योग्य हो गया है।
शिष्य का धर्म कोई गुरू पद तक पहुँचना नहीं है। वह तो एक सतत् क्रिया है। जब चेतना का बीज शिष्य में अंकुरित होता है तथा वृक्ष बनता है तो स्वयं गुरूत्व का प्रादुर्भाव हो उठता है। उसके लिये उसे कोई घोषणा नहीं करनी पड़ती और न ही गुरू होने का आडंबर ही करना पड़ता है। वह गुरूत्व तो स्वयं अन्य लोगों को फिर अपनी ओर आकृष्ट करने लगता है।
मनुष्य एक भूमि मात्र है, जिस पर यदि सही परिस्थितियां हो तो शिष्यत्व बीजरोपित किया जा सकता है और वही बीज एक दिन गुरूत्व रूपी वृक्ष बन जाता है। परन्तु तभी बनता है, जब उस भूमि में श्रद्धा, समर्पण, विश्वास की खाद डाली जाये, जब उसे प्रेम रूपी जल से सींचा जाये। अगर उस भूमि में इन सबका अभाव रहता है तो वह मरूभूमि मात्र होकर रह जाती है जहां गुलाब के सुगंधित पुष्प नहीं केवल कंटीली झाडियां ही उग पाती है।
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