Брахма и Майя считаются основной основой творения, то есть все творение продолжается на основе знания и невежества. Это дает понять, что вся жизнь зависит от концепции Гуру-ученика. Все остальные отношения называются искусственными или воображаемыми. Как только вы рождаетесь в доме, где вы родились, у вас появляется пятьдесят отношений. Позже в жизни продолжают формироваться такие отношения, как дружба и вражда. Но все эти отношения не вечны. Только отношения с Гуру являются постоянными отношениями.
जीवन के विकास में गुरू की प्रमुख आवश्यकता होती है। गुरू दर्शन औेर ज्ञान दोनों का ही आधार तैयार करता है। आत्मा के दो ही कार्य हैं- देखना और जानना यः किंचित्करोति यश्चकिंचित जानाति स आत्मा चेतना के बिना क्रिया बन नहीं सकती। शेष जो कुछ दिखाई पड़ता है, वह त्रिगुण का आवरण मात्र है। इस परदे को हटाकर स्वयं का ज्ञान करना ही गुरू का कार्य है।
गुरू ही शिष्य की परीक्षा लेता है, ऐसा नहीं है। शिष्य भी गुरू को स्वीकार करने से पूर्व परीक्षा ले सकता है। गुरू उस समय तक परीक्षा लेता रहेगा, जब कि शिष्य की न्यूनतायें और अभाव समाप्त ना हो जायें। साथ ही अहंकार वश जीवन में जो विलगतायें आ रही हैं, वे चूर-चूर ना हो जाये। शिष्य की शत्रुवत भावना की क्षमता को समाप्त करना अनिवार्य होता है। फूल समान शिष्य में गुरू महक भरता है। परीक्षा भी लेता रहता है। सेवा, डांट-फटकार सब कुछ शिष्य के अहंकार को गलाने के लिये आवश्यक भी है। हर स्थिति में गुरू के प्रति श्रद्धा बनी रहे, क्रोध न आ सके, यही सफलता का सूचक है।
आज समय का अभाव है। शिष्य कुछ पाना भी चाहता है, गुरू देना भी चाहता है, किन्तु शिष्य कहता है। मुझे तो कुछ ऐसा दो की मुझे समय न लगाना पड़े और जो चाहता हूं वह मिल जाये। कैसे संभव है? इससे स्पष्ट है की शिष्य कितना संकल्पवान व जिज्ञासु है साथ ही लक्ष्य के प्रति दृढ़ है। चैतन्य गुरू के पास बैठने से ही मन शांत होने लगता है। विचारों का ताला टूटने लगता है। कुछ बोलने की या प्रश्न करने की भी आवश्यकता नहीं है। यह भी आवश्यक है कि शिष्य स्वयं भी सद्भाव से ही बैठे।
गुरू मित्र होता है, सलाहकार होता है, प्रेरक होता है। शिष्य के सामने अनेक चुनौतियां रखता है। गुरू- शिष्य का सम्बन्ध गहन आत्मीयता का होता है। सच तो यह है कि दोनों अलग होते हुये भी एक हो जाते हैं। भावों में सघनता आ जाती है। दोनों ही एक-दूसरे को समर्पित हो जाते हैं। गुरू का प्रतिबिम्ब तो शिष्य होता है। ‘जानत तुमहि होई जाई’ के अनुसार गुरू में ज्ञानमय प्रकाश पा जाने से अनवरत शिष्य गुरू भाव में ही चला जाता है। इस तरह शिष्य गुरू का द्वैत टूटकर अद्वैत स्थिर हो जाता है। गुरू ही शिष्य को गुरूमय बनाता है। अपनी प्रतिकृति रूप बना देता है। शिष्य को आत्मदर्शन का मार्ग दिखाता है, उस पर चलता है और स्वयं की छवि उसमें देखता है। एक स्तर पर पहुँचकर वह शिष्य को भी गुरूत्व शक्तिमय बना देता है। अर्थात् वहां न गुरू, गुरू है, न ही शिष्य, शिष्य है। दोनों एक हो जाते हैं। केवल ज्ञान शेष रह जाता है।
गुरू शिष्य को पाप मुक्त करता है, आवरण हटाता है, ताप हरण करता है, इसके लिये स्वयं भी तप करता है। ईश्वर से प्रार्थना करता है, चिन्तन-मनन करता है। शिष्य के लिये नित्य नवीन ज्ञान का स्वरूप तैयार करता है, शिष्य को किस रूप में ग्रह्य होगा, उसी के अनुकूल उसे प्रसवित करता है। शिष्य के स्थान पर सारी प्रक्रिया से पहले स्वयं गुजरता है।
शिष्य के लिये गुरू कठोर होता है, माता सदा निर्मल रहती है। कठोर अनुशासन के बिना न शरीर की साधना संभव है, न ही मन की। भावनाओं का परिष्कार अत्यधिक महत्वपूर्ण भाग होता है और अत्यन्त कठिन भी। व्यक्ति सत, रज और तम की मात्र को भी सत्व में बदलने का कार्य करता है। इसके बिना लक्ष्य प्राप्ति संभव ही नहीं है। समर्पण का भाव भी इसके बिना आगे नहीं बढ़ सकता। गुरू-शिष्य का एक ही सम्बन्ध है- आस्था का। यही समर्पण का जनक भी है। बिना शंकाओं के गुरू के आदेशों को मानने लायक बनना, फिर उसे चारों ओर से समेटकर ज्ञान-प्रवाह में केन्द्रीभूत करना, वैसा ही है जैसा कि सोने को पहले तपाना फिर नये डिजायन में तैयार करना, घड़ना।
जीवन संकल्प-विकल्प के बीच झूलता रहता है। विकल्पों के बाहर निकल कर इच्छा शक्ति अथवा संकल्प शक्ति ही शिष्य का निर्माण करती है। शिष्य का समर्पण भाव ही गुरू शक्ति से कृपा प्राप्त करने में सफल होता है। तभी व्यक्ति की प्राण शक्तियां केन्द्रीभूत हो सकती हैं, पाप क्षय का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। गुरू के ज्ञान और शिष्य का कर्म मिलकर पूर्णता तक पहुँच कर ही प्रकाश को प्राप्त कर सकते हैं।
गुरू शिष्य सम्बन्ध की यह व्याख्या तो अत्यन्त सरल सामान्य व्याख्या है। मूल रूप से तो गुरू शिष्य का सम्बन्ध एक ऐसी प्रक्रिया का नाम है जिसमें गुरू शिष्य को प्रदान करें और शिष्य के लिये यह आवश्यक है कि वह अपना अहंकार अज्ञान छोड़ कर गुरू में ही अपना प्रतिबिम्ब देखे और उसके लिये प्रतीक स्वरूप कुछ विशेष दिन नियत किये गये है। गुरू तो अपना ज्ञान हर समय देता ही रहता लेकिन वर्ष में कुछ दिन ऐसे नियत होते हैं जब गुरू कृपा का भण्डार शिष्य के लिये और अधिक खुलते है। ये दिवस होता है- नववर्ष का प्रथम दिन, महाशिवरात्री, होली, गुरू जन्मोत्सव, गुरू पूर्णिमा, शारदीय नवरात्री, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा युक्त सन्यस्त अवसर। इन दिनों में गुरू तो शिष्य को बिना मांगे ही सब कुछ प्रदान कर देता है लेकिन इसके पहले शिष्य को अपने जीवन का लक्ष्य तो निर्धारित करना ही पड़ेगा और लक्ष्य प्राप्ति के लिये संकल्प की आवश्यकता रहती है। संकल्प और आस्था से लक्ष्य प्राप्ति को गति प्राप्त होती है। संकल्प से आवलम्बन नहीं छूटता बल्कि मजबूत होता जाता है। यही एकाग्रता को शनैः शनैः तन्मयता में बदल देता है। तन्मयता में व्यक्ति स्थिर भावापन्न हो जाता है। उसकी स्वाभाविक तथा वातावरणजन्य चंचलता समाप्त होती है।
सद्गुरूदेव कहते हैं जीवन में सारी वस्तुयें गौण है। सब वस्तुयें सहज ही सुलभ है, लेकिन जीवन का लक्ष्य श्री की प्राप्ति और योग सिद्धि है। जिसने अपने जीवन में श्री को योग के साथ सिद्ध कर लिया वह व्यक्ति जीवन में पूर्ण बन जाता है और उसका जीवन इस संसार में धन्य-धन्य हो जाता है।
‘श्री’ का तात्पर्य किसी भी रूप में धन नहीं है, धन तो उसका हजारवां हिस्सा है, क्योंकि समुद्र मंथन के समय जो चौदह रत्न- ऐरावत, कामधेनु, कल्पवृक्ष, विष, अमृत, धन्वन्तरी, उच्चैश्रवा के साथ अंत में श्री प्रकट हुई और इसी ‘श्री’ का वरण भगवान ने स्वयं किया यह श्री शक्ति स्वरूप महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली सभी देवियों का संयुक्त रूप है। इसी श्री से संसार की सभी शक्तियों की उत्पति हुई है।
युग धर्म के अनुसार श्री शक्ति का प्रगतीकरण महालक्ष्मी के रूप में होता है और लक्ष्मी तंत्र में वर्णित है की भगवती महालक्ष्मी के पांच कार्य है- तिरोभाव, सृष्टि, स्थिति, संहार और अनुग्रह। तिरोभाव का तात्पर्य है- मनुष्य कर्म रूप अविद्या से संलग्न हो जाये वह जीवन में समभाव बनाये रखे। सृष्टि, स्थिति संहार जीवन में उत्पत्ति, वृद्धि और आशक्तियों का क्षय है तथा अनुग्रह श्री रूपी महालक्ष्मी की पूर्ण कृपा ही है। महालक्ष्मी स्वयं कहती है की मैं नित्य निर्दिष्ट परमात्मा नारायण की शक्ति और उनके सब कार्यों का सम्पादन करती हूं मैं जो भी कार्य करती हूं वह नारायण का ही कार्य है। इसका सीधा अर्थ हुआ कि श्री सिद्धि ईश्वर रूपी गुरू कृपा से ही प्राप्त होती है।
नव वर्ष 2022 को पूर्ण सफल बनाने के लिये सद्गुरू श्रीनारायण के शक्ति को त्रिशक्ति स्वरूप में शक्तिपात दीक्षा युक्त साधना करने से नूतन वर्ष सुमंगलमय स्वरूप में प्रारम्भ हो सकेगा। यह साधना स्त्री व पुरूष दोनों को सम्पन्न करनी चाहिये। सर्वश्रेष्ठ रूप से यह 2 दिवसीय साधना 01 जनवरी व 02 जनवरी को प्रातः 05:00 से 07:00 तक सम्पन्न करें। पूर्व में ही पंच पात्र, जल, चंदन, पुष्प, कुंकुम, अगरबती, दीपक, मौली, फल, मिष्ठान, अक्षत, इलायची, लौंग, सुपारी आदि की व्यवस्था कर ले।
Материал садханы- भगवती जगदम्बा यंत्र, श्री फल, गुरू चरण पादुका, इच्छा पूर्ति त्रिशक्ति माला व जगदम्बा लॉकेट। प्रातःस्नान आदि से निवृत होकर नया साफ पीला-लाल वस्त्र धारण कर पूजा स्थान में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के लाल या पीले आसन के ऊपर बैठें। सामने लकड़ी के बाजोट के ऊपर लाल वस्त्र बिछाकर गुरू चित्र स्थापन करें। ताम्बें या स्टील की थाली में कुंकुम से ऐं ह्रीं श्रीं लिखकर ऊपर पुष्प बिछायें, उसके ऊपर भगवती जगदम्बा यंत्र को और यंत्र के बायें तरफ गुरू चरण पादुका स्थापित करें, माला को यंत्रों और पादुका के चारो तरफ गोलाकार में रखें। यंत्र के सामने कुंकुम मिश्रित चावल की ढ़ेरी पर श्री फल को स्थापित करें, लॉकेट को यंत्र के ऊपर रख दें, दीपक अगरबती जलायें। पवित्रीकरण करें-
बाये हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र पाठ करते हुये दायें हाथ से पूरे शरीर पर छिड़कें।
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यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाहृाभ्यन्तरः शुचि
Держите Акшат и цветы под сиденьем.
ऊँ पृथ्वी! त्वया धृता लोका देवि! त्वं विष्णुना धृता।
И ты держи меня, Богиня! Сделайте это место святым.
Возьмите воду в правую руку и решите –
ऊँ विष्णु र्विष्णु र्विष्णुः संवत् 2078 पौष मासि अमुक बासरे(वार का उच्चारण करें), निखिल गोत्रेत्पन्न, अमुकदेव शर्मा (अपना नाम उच्चारण करें) अहम, मम सपरिवारस्य तंत्रबाधादि सर्वबाधा निवारणार्थं, धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्बिध पुरूषार्थ सिध्यर्थं, शृति-स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थं, अभीष्ट सिध्यर्थं, श्री गुरू भगवती जगदम्बा प्रीत्यर्थं, इच्छा पूर्ति त्रिशक्ति माहेश्वरी साधना कर्माहम करिष्ये। (जल भूमि पर छोड़ दें)
सुपारी में मौली धागा बांधकर ऊँ गं गणपतये नमः मंत्र से कुंकुम से तिलक करे और गणपती स्वरूप में यंत्र के दाएं तरफ स्थापन करें और पुष्प, अक्षत अर्पित करें। ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं भैरव क्षेत्रपालाय नमः। श्री फल को और दीपक को कुंकुम से तिलक करें।
हाथ में पुष्प्प लेकर निम्न मंत्र पढ़कर सद्गुरूजी का आवाह्न करें और चरण पादुका में अर्पित करें-
будь счастлив
Гьянсварупам Ниджбодхьюктам.
Йогиндрамиям Бхаварог Вайдьям
Шримадгуру Нитьямахан Бхаджами.
चंदन, पुष्प, अक्षत आदि से ऊँ ह्रीं गुरवे नमः मंत्र से संक्षिप्त गुरू पूजन कर 1 माला गुरू मंत्र का जप करें। जगदम्बा यंत्र में कुंकुम से 3 तिलक लगायें चंदन, पुष्प, फल, मिष्ठान, लौंग, ईलायची और अक्षत अर्पण करें। माला को हाथ में लेकर चंदन, कुंकुम लगायें और निम्न मंत्र का 5 माला 11 दिन जप करें।
दुर्गा आरती और गुरू आरती सम्पन्न करें। अक्षत, पुष्प लेकर यंत्र के ऊपर चढ़ायें निम्न मंत्र का पाठ करते हुये क्षमा प्रार्थना करें-
पौष पूर्णिमा जो की भगवती शाकम्भरी जयन्ती है उस दिन घी, हवन सामग्री, किशमिश मिलाकर उपरोक्त मंत्र से 27 बार हवन अवश्य सम्पन्न करें।
चरण पादुका को पूजा स्थान में रहने दें। यंत्र, माला को कपड़े में लपेट कर गुरू चरणों में अर्पित कर दें। श्री फल को जहां रूपये रखते है वहां रखें, लॉकेट को नित्य पूजा के समय में धारण करें।
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