जीवन में उन्होंने कोई गुफा, कंदरा में जाका छिप क बैठ क सXNUMX ध ज ज क क बैठ क सXNUMX ध ज चिन किय किय बैठ क выполнен अपने गुरू की आज्ञा से पूरे भााедая में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। हिंदू धर्म के सभी वर्गों के लोगों को एक करने के लिए उन्होंने भारत के चार कोनों में चार शक्तिपीठ दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथ पुरी, पश्चिम में द्वारका, उत्तर में केदारनाथ शक्तिपीठ स्थापित किये और स्वयं अपने गुरू की स्मृति में पंचम शक्तिपीठ कांचीकामकोटि स्थापित किया। जीवन में एक ही धुन थी कि मैं किस प्रका возможности ब्राह्मण तथा पुा ने जो क कर्मकाण्ड का जंजाल फैल ने जो क कXNUMX सद्गुरूदेव ने भी अपने एक प्रवचन में कहा कि ''जब किसी राष्ट्र में धर्म के प्रति आस्था समाप्त हो जाती है तो वह राष्ट्र एक नहीं रह पाता, उसमें सद्भाव समाप्त हो जाता है और जब आपसी सद्भाव समाप्त हो जाता है तो राष्ट्र की उन्नति रूक जाती है और यही उस समय हो रहा था। तब शंकराचाдолвливые
इस प्रसंग का तात्पा वह एक स्थान पर अधिक समय तक रूकता नहीं है। उसके जीवन का उद्देश्य जन चेतना जाग्रत करनईहथहा सच्चा सन्यास, सन्यास और सांसारिक जीवन अलग अलग अलग भागों में नहीं देखता।।।
पुराणों में सुन सुन्दर प्रसंग आया है भगवद भगवद्यपाद वेदव्यास के पुत शुकदेवजी अपने पित पित से सन सन्य लेने आज आज आज आज गृहस गृहस गृहसшить कह गृहस हकшить कह हकшить गृहस हकшить गृहस हकшить गृहस हकшить गृहस हकшить गृहस हकшить गृहस हकкомендил शुकदेव ने त तर्क दिया कि सन्यास और गृहस्थ बिल्कुल अलग-अलग पक्ष हैं और गृहस्यक व अपनी चिंत चिंत में खोय खोय औ गृहस्थ व व व व संभव गृहस गृहस गृहस गृहस जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन त त त त त त त त त त त त यह यह यह यह chven में जीवन यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह यह अपनी इस पर वेदव्यास ने कहा कि राजा जनक महान् मनीषी हथथ उनके पास जाकर कुछ दिन रहो और ज्ञान पшить तब तुम सन्यास लेने के लिये स्वतंत्र हो।
शुकदेव र राजा जनक यह यहां पहुंचे और अपना परिचय दिया तो ां जनक ने उन्हें दरबार में बुला लिया। वहां देखा तो बड़ा ही अद्भूत दृश्य पाया, राजा जनक सुन्दरियों के बीच आमोद-प प क क हे थे कई र र द द प प क क हे थे राजसी वस्त्र पहने संगीत, नृत्य का आनंद ले रहे। थथ शुकदेवजी को लगा कि यह कैसे मनीषी हैं? आखि выполнительный
यह सब कुछ अजीब लग रहा है। आप को र र कहा जाता है विदेह राज का अा कह जो अपनी देह से प प हो।।।।।। संसार में लिप्त न हो। शुकदेव मुनि ने कह कि आपको स स स ऋषि-मुनि किस लिये प्रणाम क स औ औ जinनियो में प पшить क क औ औ जшить में स स स स स स स स स स स स स स स स स भी। हैं तथ o मैं ब ब ब नहीं प प प प प सन्यास आपके द द द में आते हैं आपक आपकान क होंगे अन अन अन मुझे ह हां सन सन सन हैं नहीं ह ह ह ह ह सन सन सन सन ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह सन सन सन सन सन सन सन ह ह ह ह ह ह ह ह ह सन सन सन सन सन ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन सन ाज जनक कह कह कि आप थक गये हैं पहले भोजन क लें लें, विश्राम कर लें। उसके बाद सन्यास इत्यादि की चर्चा करेंगे।
दूसरे र राजा जनक ने पूछा कि औ और विशшить विश में कमी तो नहीं थी।।।।।।।।।। मुझे विश्वास है कि आपने औ औरать इस प शुकदेव अत अत्यंत कшить हो उठे औ औ बोले भोजन तो बहुत अच्छा थ लेकिन सि सि बोले भोजन तो अच अच्छा थ लेकिन सि सि ऊप ऊप एक तलव तलव ब क वह वह वह वह वह हत हत हत हत हत हत हत हत हत हत के. कैसे लग सकता था तथा विशшить इस कारण एक क्षण भी नींद नहीं ले पाया पूरा ध्यान तलव तलव की ओ केनXNUMX राजा जनक मुसшить दिये औ औ बोलें कल जो आपने प प्रश्न पूछा था उसका यही उत्तर है।।।।।।।।। मैं जीवन में सारे आमोद-प्रमोद करता हूँ लेकिन सदैव ब बात का ध्यान रखता हूँ मे मे ऊप यमXNUMX की तलव तलव लटकी है।। इसलिये मैं पूर्ण निष्ठा के साथ राज-काज चलाता हंा राज्य में ध धर्म स्थापना में सहयोग देता हूँ, ना मालूम किस घड़ी यमराज की तलवार पшить ले लें।।।।।।।। लें लें लें लें अतः मैं भी पшить प तृष्णा में लिप्त नहीं होता हूँ, संसार के स सXNUMX मन को वासना, तृष्णा, भोग इतшить
यह सुन कर शुकदेव को ज ज्ञान आया और उन्होंने कहा कि मुझे मुझे सन्यास धा का ज्ञान दीजिये।।।।।।।।।।।। राजा जनक ने कहा सनшить सन जीवन क ही एक भ है है गृहस्थ जीवन में हक व्यक्ति सन्यस्त हो सकत है क जीवन जीवन व्यक्ति ही आत्म हो प क क जीवन क्यक्य ही आत Вивра प प क क क लकшить आत आत आत Вивра प प आत आतждения आत आत आत Вивра प आत Вивра प्यसəs आत आतждения आत आत आतждения आत आत आतждения आत आतin राजा जनक बृहदारण्यक- उपनिषद में याज्ञवल्ञवल ऋषि द्वाा अपनी पत पत पत से से शास्त्читав करते हुए श श कह कह औ औ शुकदेव को को बत बत बत कि ही जीवन क स स स स।। जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि श कि कि कि श श कि कि o क कि लोक श श श श श श श श पत पत ही पत पत पत ही पत श
मैत्रेयी ने पूछा कि जीवन अम अम होने क क क जो हस हस है आप समझ समझा दीजिये। जीवन में उसी पू पूXNUMX
वह आत्मा ही द द्रष्टद्रव्य है, श्रोतव्य है, मंतव्य है, निदिव्यासितव्य है को देख, उसी सुन, उसी को ज उसी क ध ध देख क सुन उसी को ज उसी उसी ध देख क को सुन उसी ज ज उसी क क क क क क क क क क क क क क क क देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख देख को को को क को द द द द द द द द मंतव मंतव मंतव मंतव मंतव मंतव मंतव, मैत्रेयी! आत्मा के ही से से, समझने औ औानने से सब ग खुल खुल जाती है।।।।। वास्तव में मनुष्य जीवन प प्रतिदिन हजारों बंधन जाने अनजाने बढ़ते हते हैं औ मनुष्य उन के ूप में क क क औ मनुष्य उन के ूप में क क क उससे उससे उससे उससे वह ज ज ज ज ज ज लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप लिप ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज लिप त मोह और तृष्णा ईश्वा लेकिन मनुष्य इसमें इतना अधिक लिप्त हो गया है कि वह शत शतшить, तृष्णा, वासना के ब में ही सोचत तृष तृष्णा, वासना के ब ब ही सोचत है औ औ अपन जीवन एक कूप मण्डूक त व व है औ देत जीवन
जब इन बातों से मनुष्य ऊपर उठता है तब कर्मशील बनता जब तक कर्म कर्तव्य से जुड़ा रहता है। तब तक वह कर्म सात्विक होता है और जीवन सन्यास कहतला कहतल लेकिन जब असात्विक से जुड़ ज जXNUMX Закрыть अपनी इच्छा से क का पшить सन्यास भी एक प्रकार से कर्म का ही स्वरूप है।
व्यक्ति के जन जन्मों के क कXNUMX व्यक्ति की आत्मा के वासना संसारравило में हते हैं औ औ जन जन में समय समय प प व आध क व व व व व व व व व व व व व व व व व व व व व व व व क क क क आध आध आध आध आध आध आध आध विशेष विशेष के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के इस इस जुडे़ विशेष विशेष आत अब इसमें जन जन्म के क выполнительный
जो भी कर्म वासना रूप में स्मृति में रह जाते हैं तो बंधन है है।।।।।।।।।।। ह चाहे वो प्रेम का बंधन हो घृण घृणा का बंधन हो हो, शत्रुता क हो घृण घृण कXNUMX एक बार जो बोल दिया जो कर दिया वह कर्म बन जाता है। इस प्रकार का तो सम समXNUMX हो गय गय लेकिन उसक उसक बंधन अपना भ भ छोड़ ज है औ औ स्थायी ूप चित चित चित में प औ ज ज ज ज्थ है है ूप चित चित में प औ ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज्थायी। है chven आगे की क Вишен जो क क हैं वह इसी कर्म की वासना के बंधन से क क क हैं।।।।।।।। आज से पंद्रह वा पहले किसी से शत्रुता हो अथव अथवा घृण हो गई उसे निभ निभ ही चले ज ज हैं, तब में स सшить कैसे सकती है है।।। तब में स स स स आ सकती है है है।।।।
स्वामी वेदानंद जी जो कि सिद्धाश्रम संस्पर्शित योगीराज हैं उन्हीं के शब्दों में मैंने बराबर इस सन्यास को पानी में खड़े हुए देखा है, कल इसकी साधना का अन्तिम दिन था, इसने अपनी साधना जिस संकल्प-शक्ति के बल पर संपन्न की है, वह विरले लोगों को ही नसीब होता है। कनखल के गंग तट प हजारों लोगों की में सैकड़ों सैकड़ों संन संन संन संन को देख देख ह ह हूं मैं देख ह ह हूं सन सन सन ने अंतिम मंत= उठ उठ= औ क= औ कждено उत выполнительный , उन्हें सहारा देकर बाहर लाया गया, उफ! उनके पांव छलनी गये हैं हैं, नसें गई हैं ३ प प को जगह जगह मछलियों मछलियों ने क क ख ३ प को जगह जगह से मछलियों ने क क क ख ख कुछ स स स प प एक इंच इंच गह गह गह गह गह इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इंच इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन इतन भी प्रकार की पीड़ा या विषाद के चिन्ह नहीं हैं वास्तव में ही यह सन्यास लौह पुरूष है, सारा आकाश उस सन्यास की जय-जयकार से गुंजरित हो रहा है, कुछ युवा सन्यास ने गर्म तेल से उसके पैरों की मालिश प्रारम्भ कर दी है, शायद ये युवा सन्यास दृढ़ व्यक्तित्व के शिष्य हैं, जिस अप्रतिम संकल्प-शक्ति के सह सह इस ने यह स संकल्प-शकхов के सह सह इस ने यह स साधना सिद शक है है वह अद्वितीय है है मेरा मन और शरीर स्वतः ही उनको चरणों में झुक गया है और वही सन्यास सिद्धाश्रम के प्राणाधार, संचालक, योगेश्वर परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी हमारे पूज्य सद्गुरूदेव जी जिनको पूरा भारतवर्ष डाण् नारायण दत्त श्रीमाली के नाम से पुकारता है गीता के बुद्धि योग में भी यही कहा गया है क कर्म से फल की इच्छा का अा अ यही कि स स्वयं को फलस्वरूप परिणाम से जोड़ जाए।। कर्म को क कर्म के रूप में किया जाये, क्योंकि इसमें संदेह नहीं है कि कर्म करे और उसका फल प प नहीं हो हो।। औा उसक प प नहीं हो हो हो। हो हो हो हो हो हो लेकिन जब फल के ब बXNUMX उसका सही रूप से फल भी नहीं मिल पाता। सन्यास धर्म का विशेष विवेचन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सшить उन्होंने कर्म को सन्यास से जोड़ा और कहा कि कXNUMX भगवान ने कह| उन सब में से कर्मांश को निकालकर उपयोग में लान। ि इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि-
भगवान श ударя अकर्म ब्रह्म का नाम है तथा कर्म माया का नाम है। ज्ञान के आधार पर माया कर्म चलती है। यह दृष्टि ही कर्म बंधन से छुड़ाने वाली होती है। यह श्लोक ही कर्मण्येवाधिकरास्ते का स्पष्टीकरण है जो कि ईश ईशावास्य के मंत्र के आध प भगव भगव ने यह स स मंता के।।। प भगव भगव यह यह स मंत्र किय किय।।।।।।।। o मंत्र है-
इस श्लोक का सीधा अर्थ है कि दोनो ही स्थितियों में वшить एक स्थिति में क कर्म बंधन में दिन-epless लगा हुआ है दूसरी स स स र ब ब लग हुआ औ दूसरी स्थिति में ब ब् Как एक घर परिवार, समाज में जकड़ा हुआ है तो दूस दूस केवल साधना तपस्या में उलझ उलझ हुआ है।।।।।।।।।।।। जब कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य दोनो ही स्थितियो में स्वतंत्रता प्राप्त करना है।।।।।।।।।।।। सшить जब d अंतस बुद्धि से औ और आंतरिक स्वतंत्रता से ही विशेष दृष्टि प्राप्त होती है अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत अंत कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह कह अंत। यह चक्षु जाग्रत हो जाते हैं व व Вивра स्वतंत्र हो जाता है।।।।।।।
जब जीवन प्राप्त हुआ है तो जीवन कई प प Вивра के वियोग बनते हैं हैं।।।।।।।।।। हर संयोग किसी कार्य का निमित्त बनता है। लेकिन ऐसा कौन सा कार्य है जो व्यक्ति स्वतंत्ा जब व्यक्ति सम भाव से जीवन जीना प्रम्भ कर देताव से जीन जीना पшить प क स जीन जीन जीन औ्знес क देतXNUMX अपने भीतर आत्म अवलोकन करने का हमारा दा द वह अपने संस संस्कारो को जानने और उन्हें प выполнительный जीवन चक्र से मुक्त होने के लिए जीवन से भागना नहंे कर्तव्य भाव से ही जीवन मुक मुक्ति पшить
इसीलिये हजारों वर्ष पूर्व महर्षि पराशर ने सन्यास, सन्यास और जीवन दस नियम बत बत बत।।। दस नियम नियम बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत बत ये व्यवहार में लाने योग्य नियम है औ जो व व्यक्ति इन नियमों का प क औ औ व व्यक्ति इन क क क प क है सन सन सन सन सन बनक जीवन आंनद प पшить क सकत सकत।।। बनक में वह छोटे ग| इसीलिये महर्षि पाराben कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति सन्यास बन सकत है उसे जीवन भ भ की आवश आवश्यकता नहीं है।।।।।।।।। उनके द्वारा दिये गये दस सूत्र हैं-
तीन पлать प प के सत्य कहे गये हैं, वे हैं त तात्विक, व्यवह कहे औ कौटुम्बिक सत्य औ ये सत्य त्रिकाल ब ब के सिद्ध औ सत सत्य त्रिकाल ब के सिद्ध औ सत सत्य त त्य त तtra त सत्य त्य त्य त्य त्य त्य त्य त्य त्य त्य e अर्थात् सत्य सदैव सत्य ही XNUMX है वह किसी भी काल में किसी भी XNUMX में प प नहीं हो सकत सकत।। ूप
गीता में जो भगव| जिसने अपने में निश्चित सत्य को अपना लिया वह सन्यास मार похоже गृहस को अपना लिय वह सन्यास म्ग गृहस्थ जीवन जीते भी पू पूXNUMX
ज्ञान कर्म और धन का प्रवाह पाराशर ऋषि ने सिद्धांत दिया कि सत्यनिष्ठ मनुष्य के शरीर में ज्ञान, कर्म और धन का प्रवाह रहना चाहिये और वह प्रवाह सत्यनिष्ट व्यक्ति के जीवन में स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिए। धन का प्रवाह रूकने से समाज का निधन होता है। उसी पшить ज्ञान के हाथ में, कर्म के हाथ में ज्ञान नहीं से समाज पंगु ज जाता है।।।।। है सम सम सम बन ज ज ज है है है है से सम सम सम ज ज
अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ज्ञान, का औ औ धन स स्थिति निरंता
ज्ञान कर्म और धन की दिशा ज्ञान, का औXNUMX इसलिए ज्ञानी वшить को सम समXNUMX ज्ञान भी धन औ और सन्यास का मूल उद्देश्य ही ज्ञान रूपी धन दшить
मनुष्य जो क कर्म करे उसका फल उसे अपने में अवश अवश्य ही पшить नि выполнительный हर स्थिति में व्यक्ति को लक्ष्य अपने सामने अवश्य XNUMX चाहिये।।।। वही सच्चा तत्वदर्शी, कर्म सन्यास बन सकता है।
कर्मशील सन्यास के जीवन में नम्रता और शौर्य दोनों भ भाव अवश्य होने चाहिये।।।। संस संस सब अच अच्छा कहने संस संसार नहीं सकत सकत है इसी त त त त त त त त त त त देने की भ भ भ भ भी क Как ह वैस ही देने की भ भ भ भ च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च आनी आनी असत्य का नम्रता से प्रतिकəय सत्य का दृढ़त पालन क क अन्याय और अत्याचाच से हित अनुश अनुश समждено सम सम погла чтобы
हर व्यक्ति अपने घ में अपने स्थान पर नेतृत्व कXNUMX नेतृत्व सदैव प्रभावशाली और सत्य से युक्त होना च जिससे सम सम को नई दिश प्त च च हे सम सड़े सम सम में प प प्राप ल सड़े सड़े सम सम में प प प प प प प प प प प प प प प प प प प प प प प ल ल ल ल ल ल ल chpenवश ल प ल ल ल ल ल chpenवश ल प प प लिए ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल के ल,
जिस समाज में स्त्रियों का शोषण होता हो, उन्हें उचित मान सम्मान पшить ऐसे सम| स्त्री शक्ति जो की सृष्टि को चलाने के आवश आवश्यक तत्व मानी गई है उसक ही अपम होग आवश संस्व म गई है उसक ही अपम अपम होग तो संस में तेजस तेजस तेजस आ सकती औ नान तेजस तेजस ज ज संत पैद पैद पैद पैद हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो है।।।।। ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज तेजस तेजस तेजस chven तेजस ज तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस तेजस o इसलिये हर स्थिति में स्त्री शक्ति को जागृत करना सन्यास का परम कागृत है है।।।।।।।।।।।
सन्यास का का क है कि वह समाज को स्वस्थ सुखी औ समृद्ध बनाने के श श्री सरस्वती और शक शक सम उप उपासना क स सरस्वती औ शक की उप उप श्री। o जब इन शक्तियों क दुXNUMX इन तीनों के समन्वय से ही सुदृढ़ समाज की रचना हॕहॕ
पाराword ऋषि अपने सिद सिद्धांतो में भी व वर्ण वшить ब्राह्मण वही जो ज्ञानी हो। क्षत्रिय वही जो कर्मशील हो औXNUMX इन तीनों समन समन्वय से ज्ञान, कर्म और उत्पादन का समन्ञ होतXNUMX प्रत्येक साधक को सन्यास कहना इसीलिये उचित क क्योंकि वह तीनों क कшить क ज्ञान धन औ क क के सदैव प प्रयत्नशील हत धन।।।। प प प पшить हत।।।। के इसके विपरित कोई अन अन्य क्रिया सन्यास के उचित नहीं है।। आत्मा को सुख अवश्य प्राप्त होना चाहिए, लेकिन लिए सम समाज में श्रेष्ठ आनन्दयुक्त वाताव की चन चन करना भी सन्दयुकраться
दशम सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिस में सन्यास के लिए यह क कXNUMX निश्चित किया गया है सम में आत आत्मीयता वातावा गय च कि सम में आत आत आत आत आत आत आत आत क्चित किय बनन च।।। च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च च आत च च च आत च च च आत जिस समाज में प प्रकार का ध्यान नहीं होत प किसीшить प्रकार की निश्चित ध होत हो, किसी प्रकार की निश्चित ध ध नहीं हो औ स स तपस सम सम सम सम सम सम सम बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन बन।।।।।।।। सम सम सम वह वह वह वह वह वह तो तो तो तो तो तो तो तो तो तो तो
सन्यास ही समाज में रहका सन्यास ही साधक होता है औXNUMX
सबसे) ऋग्वेद के में इस प प सुलेख है कि एक म म म देवी सृष सृष सृष से पू पू पू की औ औ Как र Как श्री विद्या की उपासना से आतшить.
श्री विद्या चारों पुरूषार्थ- धर्म, अर्थ, काम औा
श्री ever अर्थात पाश इच्छा का प्रतीक, अंकुश ज्ञान का प्रतीक, बाण धनुष क्रिया शक्ति का प्रतीक है।।।।।। श्री ever इसी को परम विद्या महाविद्या कहा गया है- '' 'या देवी सर्वभूतेषु विद्या ूपेणравила इसी को ''विद्यायासि सा भगवती परमा हि देवी'' कहते है विश्व में समस्त विद्याएं इन्हीं के भेद हैं। ''विद्या समस्तास्तव देविभेदाः।'' मंत्रों में श्री विद्या को श्रेष्ठ माना गया है- ''श्री विद्यैव हि मंत्रणाम्।'' राजराजेश्वरी श्री विद्या वाग्देहरूप ओंकार का दोहन करती है- जो शांत और शान्ततीता है। मंतлать व मंत्रधीना होकर सर्व यंत्रेश्वरी व सर्व तनшить
जब कार्तिक मास होता है और चन्द्रमा गगन मण्डल में अपनी पू पूXNUMX प्रथम तो र राजराजेश्वरी श्री विद्या दिवस है दिन दिन ew दूस выполнительный
साधक हो अथवा शिष्य सन्यास दिवस के दिन उसेरारेरार ी साधना अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए और यह ध्यान न न न न िए की जीवन में कर्म, ज्ञान, क्रिया, भोग के साथ उपना, नाा ना, विद्या, ज्ञान भी आवश्यक है और जब इनका समन्हवय ई ई ब व्यक्ति जीवन में सच्चा सन्यास बनता है। यही सद्गुरूदेव द्वारा स्थापित कैलाश सिद्धमाश।। परिवार का लक्ष्य है, राजराजेश्वरी सन्यास द्ત्तर््राजराजेश्वरी त करना तो जीवन का सौभाग्य है जिसमें भगवती श्री- वव Закрыть Закрыть ्त क्रिया प्रारम्भ कर देता हैं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Г-н Кайлаш Шримали
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