आप सब भी ऐसी ही स्थिति मे हैं। आपके अनшить भी छोट छोटा सा चेतना का झरना है औ उसमें अग चेतनXNUMX चेतन क झ झ है तो सि सि इसीलिये वह कहीं न कहीं चेतन के मह तो से आप वह कहीं एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है, और एक है, जो अनुभव करता है।।।।।।। हमारे अनुभव ग गшить बंद ह गई खुली नहीं, गांठ बनी XNUMX गई। हमारे अनुभव करने की क्षमता पूर्णरूप से विकसि।ननन इसीलिये प्रश्न उठता है-भगवान है या नहीं? लेकिन प्रश्न अगा ज गलत हुआ उत उत्तर कभी नहीं हो प पाएगा। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां हैं? मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है? भक्ति, श्रद्धा, विश्वास पहले होना चाहिये। लेकिन उनका प्रश्न विचारणीय है। वे कहते हैं, जब हमें भगव भगवान का पता न हो, तब भक भक्ति कैसे करें? किसकी भक्ति करें? कैसे करें? किसके चरणों में झुकें? अपने भगवान, अपने इष्ट, गुरू पर विश्वास पहले होना ाा तभी हम झुक सकेंगे?
चूंकि भगव| भक्ति के लिये भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है। आंख के उपचार के लिये सूरज की क्या जरूरत है? भक्ति के सि सिर्फ तुम्हारे प्रेम के, भाव को बढ़ाने की जरूरत है, भगवान की ज ज नहीं है है।।।।।।।।।।।। प्रेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें डूब जाये, लीन ज जाये।। जहां प्रेम निरअहंका возможности भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। प्रेम को मुक्त करो क्षुद्र से प्रेम को बड़ा कर। प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम में कृपण हो, तो प्रेम नहीं रहता और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति, श्रद्धा आनन्द बन जाता है और जहां तुम्हारे अन्दर भक्ति, श्रद्धा, विश्वास अपने गुरू, अपने इष्ट व भगवान के प्रति जागृत हुआ वहीं तुम्हें पूर्णता प्राप्त हो जायेगी वहीं तुम्हें भगवान के दर्शन हो जायेंगे। तुमसे कहा गया है बार- बार कि भगवान पर भरोसा करो ताकि भक्ति हो सके।।।।।।।।।।।। सके सके हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा कि अथातो भक्ति जिज्ाााााा अब भक्ति की जिज्ञासा करें। और जिसने भक्ति की जिजшить जिज की की वह वह आय तो तो संस में में लेकिन संस संस में व्या जीया और जी नहीं पाया, उसकी जीवन कथा दुर्दिनों की कथा है और दुाओं की की की।।।।।।।।।।।।। अवसर तो मिले, लेकिन कोई भी उपयोग नहीं कर पाये। जो बिना श्रद्धा, प्रेम, भक्ति के बिना जी लिया, जो बिन बिनXNUMX
श्री विवेकानंद ने कहा है जब मैं जागा तब मैंने जाना कि जीवन कшить क है।।।।।।।। उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकलाी जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। एक राजा का दरबार लगा हुआ था। क्योंकि सर्दी का दिन था इसलिये राजा खुली में बैठ बैठा था। पूरी आम सभा सुबह की धूप में बैठी थी। महाराज के सिंहासन के सामने एक प प प कीमती चीज रखी थी। पंडित, दीवान व प्रजा आदि सभी दरबार में बैठे थे। राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे। उसी समय एक व्यक्ति आया और प्रवेश माँगा, प्रवेश मिला तो उसने कहा मेरे पास दो वस्तुयें हैं, मैं हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और अपनी बात रखता हू कोई परख नहीं पाता सब हार जाते हैं और मैं विजेता बनकर घूम रहा हूँ अब आपके नगर में आया हूँ। राजा ने बुलाया और कहा क्या बात है उसने दोनों वस्तुयें टेबल प प ख दी बिल्कुल सम आक आक सम र र र सब यकэр सब सब यक यक यकчитать र सब यकхов र यकхов र यकчитать र सबхов सब यकчитать र सबхов सब यक= बिल यक вместе हाँ दिखायी तो एक सी देती हैं लेकिन हैं भिन्न। इनमें से एक है बहुत कीमती हीरा और एक है काँककका टथ टथ
लेकिन रूप रंग सब एक कोई आज तक प परख नही पाया कि स सा हीरा है? और कौन सा काँच? कोई परख कर बताये कि हीरा है या काँच। अगर परख खरी निकल गयी तो मैं हार जाऊगाँ औा यह ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही ही हीXNUMX।। र र तिजो तिजो तिजो में क कXNUMX यदि कोई पहच पहच| इस प्रकार मैं कई राज्यों से जीतता आया हूँ। राजा ने कहा मैं तो प परख सकूंगा दीवान बोले भी हिम हिम हिम नही क सकते क्योंकि दोनो बिल्कुल सम है।।।।।।। सब हारे, कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया। हारने पर पैसे पड़ेगे इसक इसका कोई सवाल नहीं, क्योंकि राजा के प प बहुत धन है र क्योंकि ew कोई व्यक्ति पहचान नहीं पाया, आखिा ल थोड़ी हलचल एक अंध अंध अंध आदमी आदमी ह ह में ल लेक उठ उठ कह मुझें मह मह मह के के यह यह यह यह यह यह यह सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि कि मैंने मैंने मैंने
राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे क्या हरज है। राजा ने कहा ठीक है! तो उस आदमी को दोनो चीजे छुआ दी गयी औा पूछा गय इसमे कौन स ही ही दी औ औा गय इसमे कौन स ही ही ही औ कौन सा काँच यही परखना है।।।। उस आदमी ने एक मिनट में कह दिया कि यह हीरा है और यह यह जो आदमी र ाज्यों को जीतकर आया था, वह नतमस्तक हो गया और बोला सही है।।।।।।।। अंधे आदमी को बोला-आपने पहचान लिया धन्य हो आप। अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मैं आपके ew सब बहुत हो गये औ औ आदमी आय आयXNUMX वह राजा और अन्य सभी लोगो ने उस अंधे व्यक्ति से ही जिज जिज्ञासा जत कि तुमने यह कैसे पहच पहच कि यह ही हीरा औ औ वह क क यह कैसे पहच पहच कि ही ही है औ वह क क यह यह
उस अंधे कह कह कि सीधी सी बात है मालिक, धूप हम सब बैठे है।।। Закрыть अंधा आदमी पत्थर को हीरा समझे ले, आश्चर्य क्या? अंधे को परख भी कैसे हो, पत्थर की और हीरे की? अंधे के लिये दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है। तो खयाल ा, अगर भक्ति की जिज्ञासा नहीं है तो समझन समझन कि कि तुम जन्मे ही नहीं।।।।।।।।।। नहीं नहीं अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी जीवन जो प पXNUMX
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज कथ दो हालांकि दा में जो दिख दिखXNUMX प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा? वह असली का धोखा है। वह असली की छायाँ है। इसलिये सूरज को देखने दो ढंग हैं हैं, यह कहना भी श श नहीं नहीं, ढंग तो एक ही है-सीधा देखना। दूसरा ढंग कमजोरों के लिये है कायरों के लिये है। जो लोग शास्त्रों में सत्य को खोजते हैं वे काय। हह। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जायेगा तो भी किसी काम कहा ही छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है वह झथ। हह लेकिन लोगों ने शास्त्र को सिर परख लिये हैं कोई गीता, कोई कुXNUMX यह दर्पण की पूजा चल रहीं हैं। सूरज को तो भूल ही गयें। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिये हैं कि अब प प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन प выполнение
सत्य को देखना हो तो सीधा ही देखा जा सकता है। Закрыть विवेकानंद भी भक भक्त हो चुके थे, ज्ञानी हो थे श शास्त्र निर्मित हो थे।।।। विवेकानंद ने कह कहा कि चलो अब शास्त्रों में औ सत्य को खोजें खोजें, चलों अब श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। तल तल तल तल तल तल तल तल विवेकानंद ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो मिलेग मिलेगा शब्दों में नहीं, अपने अनुभव मिलेग मिलेगा। परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगा क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं।
इसलिये विवेक| और कहने से ही झूठ हो जाता है। क्योंकि शब्द की चौखट छोटी है है, सत्य का विस्तार अनंत।।।। क्षुद्र शब्द के भीतर समाने की कोशिश में सत सत्य जड़ हो जाता है।।।।। बड़ी पुरानी कथा हैं कबी के एक गीत में प्रेमी ने प्रेमिका के द्वाा प्रेमी ने कहा मैं हूं तेरा प्रेमी। मेरी ध्वनि नहीं पहचानी? मेरी आवाज नहीं पहचानी? भीतर सन्नाटा हो गया। कोई उत्तर न आया। प्रेमी बेचैन हुआ। उसने कहा, क्या कारण है? द्वार क्यों नहीं खुलता? प्रेमिका ने कहा इस घर में दो के लायक जगह नहीं है। या तो मैं, या तो प्रेम, घर में दो के लिये जगह नहीई ह ह यह द्वार बंद ही रहेगा, जब तक तुम एक होकर न आओं।
प्रेमी वापस चला गया। कई दिवस गये गये, ऋतुयें आयी गयी, बड़ी साधना की उसने बड़ अपने को निख निखXNUMX शुद्ध किया, आग से गुजरा, कंचन हो गया, एक र पू पूXNUMX को उसने प प एक एक एक Как र पूा को उसने प प्रेमिका के द्वार पर दस्तक दी वहीं सव सव सव सव कौन हो हो हो हो हो प्रेमी ने कहा, तू ही है। कबीर कहता है, द्वार खुल गये। भक्त कह दे परमात्मा से, कि बस तू ही है, मैं नहींू ह। यात्र पूा क्योंकि तू का अर्थ ही अगर मैं नहीं? तू में सXNUMX अ अ ही के क कारण है के पहले मैं है औ जब जब प्रेमी ने कह तू है औ तब भीत तो वह ज ज है मैं कह ह हूं भीत तो वह ज ज कि मैं ह ह हूं भीत तो ज ज मैं ह ह ह औ ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह मैं ही तो तू कहेगा, तो तू भी कौन कहेगा?
इसलिये कबीर की तो कविता पूरी हो जाती है कल द्वार ।र लेकिन थोड़ी दे देा दो अभी कचरा जल गया, कंचन बचा, अब कंचन को भी मिऋेान अशुद्धि गई, शुद्धि बची, पाप गया, पुण्य बचा ज ज दो औ औ तब मैं कहत्य बच प प प्quer तब उसे वापस दोबारा लाने की जा नहीं द दरवाजा खटखटाने के लिये दो दफा काफी खटखटा चुका अब प्रेमी नहीं लौटेग लौटेग।।।। दफ काफी खटखट चुक प प नहीं लौटेग लौटेग।। तब प्रेमी जहां होगा, मगन होगा। अब प्रेमिका ही उसे खोजती आयेगी प पшить ही उसे आक आलिंगन क क लेगी।।।।।
जिस दिन भक्त बिलकुल मिट जाता है। भगवान आता ही है। और मैं कहत कहता हूं, कि भक्त कैसे भगवान तक पहुंच सकता है? न तो तुम्हें उसका पता मालूम है, न ठिकाना। पता भी लिखोगे तो कहां? जाओगे तो कहां? तुम उसे खोजोगे कैसे? वह मिल भी जाये तो पहचान कैसे होगी? क्योंकि पहले तो कभी जाना नहीं। जब तुम शून्य हो जाओगे, वहां से उत्तर आता है। जैसे बूंद सागर में खो जाये। तुम शून्य हुये कि पूर्ण होने के अधिकारी हुये। तुम मिटे कि परमात्मा आया। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तू का क्या अर्थ है, अगर मैं नहीं? मैं का क्या अर्थ है, अगर तू नही?
कबीर कहते हैं, हम तो एक एक करि जाना। न वहां कोई मैं है, न वहां कोई तू है। हमने तो एक को बस, एक ही तरह जाना। दोई कहै, तिनही को दोजख जिन्होंने दो कहा, वे नर्क क किन्होंने वह नर्क में है। दो यानी नर्क, एक यानी स्वर्ग। वे ही दो कहते हैं जिन्होंने पहचाना नहीं। और जो दो कहते हैं, वे गहन नर्क में पडे़ रहते हैं। सीमा नर्क है। बंधे हुये अनुभव होना पीड़ा है। सब तरफ से दबे होना दुःख है। कुछ बचा है पाने को। जब तक सब कुछ न पा लिया गया हो। कुछ भी न बचे बाहर। तुम ऐसे फैल जाओ कि आकाश जैसे ढाक लो सारे असॕऋऍतथथथ कि फूल तुममें खिलें, चांद-तारे तुममें चलें। स्वामी ew वह मैं ही था। जिसने चांद-ता возможности तो लोग समझते थे कि पागल है। ज्ञानियों को सदा लोगों ने पागल समझा है। बात ही पागलपन की लगती है।
जब स्वामी राम चरण दास अमेरिका औ औ उन्होंने ये ही बातें वहां कही-तो वह के ने उन ही पातें वहां कही तो वह के ने उन प प कह हम हम हम हम हम हम हम हम हम व व व व व व व व व व व व व व व व व व व वven परन्तु हिंदुस्तान में यह चल जाता है। बातें हजारों साल से पागलों को सुनते-सुनते जो प प नहीं हैं, वे भी से कम उनकी भ भXNUMX प प हो।।। कम भ भ भ भ प हो गये।। मानते है कि सधुक्कड़ी भाषा है। अपनी नहीं, साधुओं की है। कुछ सिरफिरे लोगों की है। तभी तो कबीर को कहना पड़ता है, कहैं कबीर दीवान। दीवानों की है पागलों की है, मस्तों की है। मग выполнительный
इसलिये हमारे ऋषियों कह कह है कि जब भक्त अपना सब छोड़ देत देत है तो आंगन, आकाश उसका हो जXNUMX है।।।।।।।। उसक ज ज ज ज है है जिसने अपने अहंकार को छोड़ा सब उसका हुआ। जिसने यहां गिराया अपना अभिमान, जब समुद समुद Вивра में गई वह सब के भीत भीत सब प्राण उसके प प प हो गया। रामकृष्ण परमहंस को मरने से पहले गले का कैंसर हो गया, तो बड़ा कष्ट था। भोजन करने में, पानी भी पीना मुश्किल हो गया था। गले से भी चीज खाने में बड़ा कष्ट था, तो विवेकानंद ने एक दिन e आप जरा माँ को क्यों नहीं कह देते? जगत् जननी को जरा कह दो। तुम्हारी वह सदा से सुनती रहीं हैं। इतना ही कह दो, कि गले को इतना कष्ट क्यों दे रही हो? रामकृष्ण ने कहा, तु कहता है तो दूंग दूंगा मुझे ख्याल ही न आया।
घड़ी भर बाद आंख खोली और खूब हंसने लगे और मां नहे लाक! कब तक इसी कंठ से बंधा रहेगा? सभी कंठों भोजन क तो र ामकृष्ण ने कहा, यह अव अव अव अव ही इसलिये हुआ थ थ सभी कंठ मे मे हो ज ज ज।। सभी मे मे मे हो ज ज ज ज ज अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन करूंगा। एक कंठ अवरूद्ध होता है, तो कंठों के द द Вивра खुल जाते हैं।।।। यहां एक अस्मिता बुझती है और सारे अस्तित्व की अस्मिता, सारे असшить वही अस्तित्व की अस्मिता तो कृष्ण से बोली है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। सब धर्म छोड़ कर तू मेरी शरण में आ जा यह कौन बोल। हह।? यह कौन है मेरी शरण में? यह कोई कृष्ण नहीं है, जो सामने खड़े हैं। यह सारे अस्मिता, यह सारे अस्तित्व का मैं बोला है॥ क्योंकि तुम्हारा मैं बाधा है क्योंकि उसके क कXNUMX
Канавра ने अपना एक संस्मरण लिखा, जो बड़ बड़ा ही प्रीतिकर लगा। ऐसी पूर्णिमा की रात थी, रवींद्रनाथ नदी किनारे ठै एक छोटा सा दीया जला कर किताब पढ़ रहे थे। बड़ी टिमटिमाती रोशनी थी। छोटा सा दिया था। और बाहर पूरा चांद खिला था पूर्णिमा की रोशनी ह२ र२ र२ लेकिन कमरे के भीतर दीया टिमटिमा रहा था। उसकी मंदी ोशनी ोशनी सारे कक्ष को XNUMX दीये को फूंक मार कर बुझा कर किताब बंद की। तो वह चौंक के खडे़ हो गये और नाचने लगे। यह एक अनूठी सी घटना थी। उन्होंने सोचा भी न था ऐसा होगा। अभी तक पीला सा प्रकाश भरा था कमरे में। दीये को बुझ|
उस रात उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, मैं भी कैसा पागल हूं! पूरा चांद बाहर खड़ा था अनूठी सुंदर Как बाहर पшить चांद द्वार पर खड़ा है, खिड़की पर खड़ा है, रंध्र-रंधा है खिड़की पXNUMX और छोटा सा दीया बाधा बना है और उसकी से भीत मंदा प्रकाश भरा है आंखें थकती हैं, शीतल होतीं।।।।।। होतीं होतीं होतीं होतीं होतीं होतीं नहीं हैं हैं हैं हैं हैं हैं दीये के बुझते ही सब तरफ से रोशनी दौड़ पड़ी। भीतर जगह खाली हो गई। शून्य हो गई। चाँद आ गया नाचता हुआ। Канавра ने कह कह उस दिन मे मे मन में एक द द द खुल गय कि कि तक मे मे भीत अहंकार क दीय गय ह जब तक मे भीत भीतXNUMX जिस दिन यह दीय मैं फूंक म मXNUMX फिर नाच ही नाच, आनन्द ही आनन्द, उत्सव ही उत्सव है। फिर इस उत्सव का कोई अंत नहीं होता।
जिन्होंने दो कहा, वे नर्क में है। कबीर का यह वचन बहुत प पшить तो क्या करें? क्या अकेले में भाग जायें? एकांत में हो जायें, जहां दूसरा न हो? न पत्नी हो, न पति हो, न बेटा हो। बहुतों ने यह प्रयोग किया है। Закрыть क्योंकि दूसरा नरक है। लेकिन तुम भाग कर भी अकेले न हो पाओगे। क्योंकि तुम्हारा मैं तो तुम्हारे साथ ही चला जाय तुम अपना तु तो यहीं छोड़ जाओगे, मैं तो साथ चलाजाय और ध्यान रखो, जहां मैं हूं, वहां तू है। वह सिक्का इक्टठा है। तुम आधा-आधा छोड़ नहीं सकते। अगर मैं तुम्हारे साथ गया तो तू भी तुम्हारे सा। गय जल्दी ही अपने को ही दो हिस हिस्सों में बXNUMX
अकेले में लोग अपने से ही बात करने लगते है। मैं और तू दोनों हो गये। अकेले में लोग ताश खेलने लगते हैं। खुद ही दोनों तरफ से बाजी बिछा देते है। उस तरफ से भी चलते हैं, इस तरफ से भी चलते हैं। इतना ही नहीं, उस त त से भी धोख धोख देते हैं हैं, इस त से भी धोख धोख देते है किसको धोखा दे XNUMX हो हो? अकेले मे लोग कल्पना की मूर्तियों में जीने लगहे ते मूर्तियों उनसे चर्चा करते हैं, बात करते हैं, तो तू मौजूद ।ा हो हो भीड़ तुम्हारे साथ ही आ जायेगी अगर मैं तुम्हा॰े ा॰े ाायेगी क्योंकि मैं तो केंद्र है सारी भीड़ का भीड़ तधो पतर तुम जहां जाओगे, तुम भीड़ में रहोगे। तुम अकेले नहीं हो सकते। हिमालय का एकांत शून्य नहीं बनेगा। अकेलापन रहेगा ही। और अकेलेपन और एकांत में बड़ा फर्क है। अकेलेपन का अर्थ है, लोनलीनेस औ एकांत का अा अ है अलोननेस अलोननेस, अकेलेपना का अा है कि दूस दूस दूस की च मौजूद है।।।।।।। है दूसरे की वासना मौजूद है। तूम चाहते हो कोई आ जायें। तुम अपनी हिमालय की गुफा के बाहर बैठकर भी रास्ते पर नजाये रखोगे कि श कोई यात्ा शायद कोई मनुष्य थोड़ी खब ले आये नीचे के मैदानों की, कि क्या हुआ? जयप्रकाश नारायण की पूर्ण क्रांति हो पाई कि नहीं? शायद कोई अखबार का एक टुकड़ा ही ले औ औ तुम वचनों की त तXNUMX अखब को लो लो।।।।।।।।।। मन तुम्हारा नीचे ही भटकता रहेगा मैदानों में, जहां भीड़।।।।
ामकृष्ण एक बार बैठे मंदि मंदि के ब बाहर दक्षिणेश्वर में देख देख कि एक चील मरे हुये को ले उड़ी।।।।।।। है है है है है उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी उड़ी अब चील ही ऊप ऊप उड़े, नज तो उसकी नीचे कचरे-घ में लगी XNUMX है।।।। जहां मरे चूहे हो हो, मांस का टुकड़ा पड़ा हो, फेंकी मछली पड़ी हो।।।।।। आकाश में नजर तो घूरे पर लगी रहती है। तुम हिमालय पर बैठ जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। नजर घूरे पर लगी रहेगी दिल्ली में एक पहXNUMX उस पह| जैसे चील की नजर मरे हुये चूहों पर लगी रहती है। तुम अपने को तो साथ ही ले जाओगे। तुम ही तो तुम्हारे होने का ढोंग हैं।
रामकृष्ण ने देखा कि वह चील उड़ रही है चूहे लेक लेक औ बहुत सी चीलें उस प झपटृा मा вмести कौवे दौड़ गये है। बड़ा उत्पात मच गया है आकाश में। वह चील बचने की कोशिश कर रही है। लेकिन और गिद्ध आ गये हैं औ सब त त से से टोचे ज ज है है भ भ भ है बचना चाहती है। उसके पैरों पर लहू आ गया है। तब क्रोध की अवस्था में वह भी किसी गिद्ध पर झपटी औ मुंह से चूहा छूट गया। चूहे के छूटते ही सारा उपद्रव बंद हो गया। कोई वे चील के पीछे पड़े नहीं थे। बाकी गिद्ध और चीलें और कौवे वे चूहे के पीछे पडे़े जैसे ही चूहा छूटा वे सब चले गये। अब वह थकी चील वृक्ष पर बैठ गई। रामकृष्ण कहते है कि मुझे लगा, शायद थोड़ी उसे थमझ ॸमझ रामकृष्ण चूहा सारी भीड़ को ले आया था।
तुम्हारे मैं में हिम हिमXNUMX सब भीड़ आ जायेगी। तुम्हारा मैं भीड़ को खींचता है। तुम मैं, को दो ब बाजा возможности तुम्हारी दूकान तुम्हारी गुफा ज जायेगी तुम्हारा दफшить मैं का चूहा भर छूट जाये। फिर कोई हमल हमला नहीं करती फिा तुमसे किसी का कुछ लेना-देना नहीं है। Просмотреть еще तुम्हें कभी किसी ने धक्का नहीं मारा? किसी ने तुम्हें कभी नीचा दिखाया नहीं। तुम्हारे मैं को नीचा दिखाया गया है? किसी ने कभी तुम्हारी स्तुति की? नहीं तुम्हारे मैं की स्तुति की गई। जैसे ही मैं गय| शास्त्र कह रहा है-दूसरा ना है है अग अग बहुत गौ से सोचो औ औXNUMX गहरे ज तो दूस दूस है कि तुम हो।।।।। हो हो द गो इज द हेल। गहरे पर विश्लेषण करने पर तो पता चलेगा कि दूसरा तो तुम्हारे कारण है।।।।।।।।।।।।। इसलिये दूसरे को क्या नर्क कहना। वह नर्क मालूम पड़ता है। वस्तुतः मैं ही नर्क है। अहंकार ही नर्क है।
एक ही पवन है चाहे कैलाश में, चाहे काबा में। एक ही पानी है, चाहे गंगा में, चाहे तुमшить और चाहे छोटे से के दीये में औ चाहे महासूा में एक ही ज ज है है।।।।।।।।।। इस एक को पहचानो। इस एक को जीओ। इस एक में रमों। एक को ही गुनो। इस एक को ही साधो। इस एक को ही ध्यान बनाओ।
और एक ही मिटृी है जिससे सब तरह के घड़े गढ़े गये है कुम्हार चक्के पर रखता जाता है वही मिटृी। अलग-अलग रूप देता चला जाता है रूप का भेद है। नाम का भेद है। मूल का तो जरा भी भेद नहीं है। अस्तित्व का तो जरा भी भेद नहीं है। कोई स्त्री है, कोई पुरूष है। भीतर सब एक है। कोई गोरा है, कोई काला। कोई हिंदू है, कोई तुर्क है। कबीर कह कहXNUMX है कि लकड़ी को XNUMX वही एक उपाय था। लकड़ी में अग्नि छिपी है। काष्ठ में अग्नि छिपी है। जब बढ़ई काटता है लकड़ी तो लकड़ी ही कटती है है, अग्नि नहीं है।। कबीर यह कह रहे है, ऐसे ही तुममें वह एक छिपा है। जब मौत तुम्हें मारती है, तो लकड़ी ही कटती है। अग्नि नहीं कटती। जब बीमारी तुम्हें पकड़ती है, तो को ही पकड़ती है, अग्नि को नहीं पकड़ती।।।।।
जब जवान बूढ़ा होता है तो लकड़ी ही बूढ़ी है, अग्नि बूढ़ी नहीं कबीर यह कह रहे है। ऐसे ही तुममें कहां वह एक छिपा है। चाहे तुम्हें पता न हो। क्योंकि तुमने रगड़ा ही नहीं कभी और जिन्होंने XNUMX अपने को उन्होंने जाना। रगड़ने का अर्थ है, जिन्होंने थोड़ा साधा, उन्होंा जिन्होंने भीतर के रूप को बाहर प्रकट कर के देखा, उन्होंने जाना। उन्होंने भीतर की अग्नि को पहचान लिया औा तब वे ज है है कि सभी लकडि़यों मे ही अग अगtrनि छिपी है।।।।।।।।।।।। छिपी लकड़ी के रूप अलग-अलग होंगे। आग का रंग-ढंग एक। आग का स्वभाव गुण एक। जिसने ऊपर-ऊपर से पहचाना वह शायद सोचता हो, सग अलहग-ग जिसने भीतर से पहचाना, ये एक ही मिटृी के बने है।
इसलिये तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, '' ना हन्यते हन्यमाने शरीरे '' शरीर कटेगा फिर भी नहीं कटता। नैनं छिदंति शसшить नैनं दहति प प प न तो शस शस्त्रणि सकते औ औ औ न आग जल जल सकती है।।।।।।।।।। है शरीर ही कटेगा, मैं नहीं कटता हूं। तू भी नहीं कटेगा शरीर ही कटेगा। ये जो युद्ध के मैद|
और जब तुम्हें यह दिख गय कि भीत भीत की ज्योति अखंड है, भीतर के प्राण शाश्वत सनातन हैं।।।।।।।।। दीया मिट जायेगा, ज्योति नहीं मिटेगी। शरीर गिरेगा प्राण ज्योति सदा रहेगी। इसलिये अपने अन्दर के मैं को मिटना पड़ता है। अहंकार को गलना पड़ता है। और तब स्वयं को पहचानने की क्रिया करनी होती है। तब उस परमात्मा से एकाकार होता है। तब अन्दर छिपी अखंड ज्योति स्वरूप वह अग्नि प्रज्वलित होती यह तभी सम्भव है जब हम अपने अन्दर के मैं को मार डाले और अपने अन्दर अपने ईष्ट, गुरू व उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा, विश्वास भक्ति को जाये जिससे तुम्हारा जीवन अजस्त्र अखंड गंगा की तरह निर्मल होकर बहता रहे।
Его Святейшество Садхгурудев
Г-н Кайлаш Шримали
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