गु выполнительный व्यक्ति की पूर्व भावनाओं को उसके पू पू Как यह पू выполнительный केवल जिह्वा से गु गुXNUMX गु की ट लगाने से जीवन में 'गु गुXNUMX क्योंकि समाहित तो तब हो सकेंगे जब हृदय किसी पूर्वाग्रह से रिक्त होगा। जब तक वहां किसी औ की मू मूXNUMX बिठा XNUMX खी होगी छोड़न छोड़न ही न च चाह XNUMX होंगे तो वे सम सम होंगे कह कहां?
यह सत्य है, कि प्रत्येक जीव को उसकी भावनाओं के अनुरूप प्रारम्भ में वैसा ही स्वरूप दिखाते हैं, क्योंकि मानव देह में प्रस्तुत होते निखिल ब्रह्माण्ड की ही एक सजीव प्रस्तुति जो होते हैं। जिनके विविध अंग-उपांग में अनेक देवी-देवता (तथाकथित) या देवी देवी देवत देवी लील देवतXNUMX (तथाकथित) य देवी देवी देवत क क लील लील विव यूं तै तै ह ह होत है जिस हते हते से से से से से से हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते हते किन किन किन किन किन किन किन किन किन किन आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते आते मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ मेघ होते, न उन मेघों से आकाश का कोई परिचय होता है। आकाश की शुभ शुभ्र नीलिमा होती है वही उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति नीलिमा होती है उसकी व वास्तविक अभिव्यक्ति नीलिमा प है उसकी व व वXNUMX यह अनायास नहीं है, कि क कारणवश गुरू की अभшить है कि क क क क क क्डल गु व अभ्य्थन्थना 'अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराच तत ततшить द द तस तस तस तस श के ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप के के के के के के गई गई गई गई गई गई गई गई गई गई गई गई गई गई श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श श ch
सम्भव है कि किसी भक्त प्रवृत्ति के व्यक्यक को ब ब्त पшить के व्यक्यक को ये ब ब ब ूचिक ूचिक लगे क Вивра व की जब उसकी ध ध ध औ भी भी भी भी भी उसके उसके तो तो तो चोट चोट चोट चोट चोट चोट चोट चोट चोट चोट चोट. भक्ति तो एक भय है, भक्ति तो एक स्वार्थ पोषण कहर।ंर ९ंर यूं यथार्थ में होते ही कितने भक्त हैं, जो भक्ति मार्ग को श्रेयस्कर घोषित किया जा सके? मैंने तो सूक्ष्म अवलोकन में यही देखा है, कि जो व्यक्ति स्वयं को भक देख देख है जो व व व व व व व व व व व य य य य देवत देवत प स को कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने कोने वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे वे हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं वे हैं हैं वे हैं देवत हैं वे के देवत हैं वे के देवत वे और उनकी मान्यता पर जरा सी चोट पहुँची नहीं, कि तड़प उठते हैं हैं, उनके दम्भ क विष छलक क ब ब आ ज ज दम दम क विष क क ब ब आ ज ज।। क विष क क ब ब आ ज है। क क छलक क क ब आ ज ज।।। क क जो इस के इतिह इतिह से प प होंगे होंगे, वे ज ज होंगे कि इसी देश में में, इसी सहिष्णु कहे ज व व देश वैष में व शैवों के मध केवल त त त क आद नहीं ही के मध मध मध युद युद युद युद युद युद युद युद युद युद युद युद युद मध मध मध मध मध मध मध मध मध मध मध मध मध मध युद युद युद युद युद युद
व्यक्ति का पूरा जीवन ही यूं छद्मों के पोषण, आवरण और मिथ्या प्रलाप में बीत जाता है, क्योंकि उसने विश्लेषण की उस प्रक्रिया से संयुक्त होना नहीं सीखा होता है, जो उसे गुरू के साहचर्य में आने के बाद अवश्यमेव अपनानी चाहिये और ऐसा वह इसलिये नहीं करता है, क्योंकि विश्लेषण की प्रक्रिया से संयुक्त होन्लेषण की पшить यह इतनी त त्रसदायक कшить है कि कबी कबी ने घुन द द्वाшком क ख कबी ने इसे घुन द्वाшком क को ज ज संज संज संज द्वा क प प प प जो ह ह ह ह ह ही ही नहीं नहीं नहीं ूदन ूदन ूदन ूदन ूदन ूदन chlion में हीхов में हुआхов हुआ हुआхов हुआ हुआхов हुआ हुआ संयुकхов संयुक नहीं हुआ संयुकхов संयुक नहीं) में कुछ प प Вишен क क निकल पड़ पड़ है है तो दूस दूस दूस ओरने प प उसे उस अज्ञात दू दू कचोटती है जिसका गु गु से सम्पात दू कचोटती प क क क क क क क क क गु गु गु गु गु गु गु क क क क क क क क क में में में में में chvin में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में ब o
इसके उपरान्त भी कुछ साधकों को अपने पूर्व जन्म के संस्काों को अपने पूर्व जन्म संस संस्काen यूं तो अनेक भक्तों ने भी अपना जीवन न्यौछावर किया है, किन्तु उनका सम्पूा उन्होंने ईश्वर को केवल अपना माना है और अपने को केवल ईश्वर का माना है, जबकि साधक का लक्ष्य आत्म कल्याण से उठते ही, उसे सम्पूर्ण करते ही तत्क्षण लोक कल्याण की ओर उन्मुख हो जाना है या यूं कहें कि वह आत्म कल्याण या अपनी मुक्ति का हेतु बन सके, गुरूत्व से युक्त हो सके। जहां तक ईश्वा गुरू का तो ही होत होता है अनेक के औ औ औ उसके शिष्य का भी लक्ष्य होना चाहिये। अपनी बद्ध धारणाओं से मुक्त होकर गुरू साहचर्य को प प्त होकरू साहच स इस प प्रकार ग्रहण करना भी प प्रकार से गुरू साधना ही है।।।
चेतना का प्रवाह गंगा भ भांति कभी रूकता नहीं औ अन्त में स स को ऐसी विश विश विश में लुप्त प में स को एक ऐसी विश विश विश में लुप्त प है जिसमें देवी ा का (अथव अथव्वयं उसक स नहीं ह ा ह ा क ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह ह Â यही वासNस ूप ूप गु गुरू परिचय की स्थिति होती औ औ यही बшить ऐसे गुरू रूपी समुद्र प प्रतिक्षण अनेक दिशाओं से ज ज्ञान की ध धXNUMX गुरू से अन्त में 'मिलन' नहीं होता है, गुरू तो प्रथम दिवस से ही स स चल हे होते हैं।।।।।।।।।।।। अन्त तो सम्पूा में होत होतXNUMX आवश्यक केवल यह रह जाता है, कि शिष्य पшить जब म म म म न मिल रहा हो भी वह अटकी नदी की त त छटपटXNUMX हो भी वह अटकी की त त छटपट छटपट छटपटXNUMX हत औ औ अटकी की त त्थ छटपट को घिस-घिस क क सम मXNUMX की क क क क क हे हे हे सम थ क क की क क क अनेक अनेक पत पत पत पत पत पत की की क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क chven की की क क क chven की क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क o विश्लेषण की क्रिया या इन्हीं सब कшить
ऐसा होने पर ही गुरू साहचर्य की सफलता होती है और शिष्य व्यर्थ के प्रलापों, धारणाओं से मुक्त होक र गुरू रूपी समुद्र में झुककर अपने प्रतिबिम्ब क ो निहार कर समझ जाता है, कि उसका नूतन जन्म तो एक हं स के रूप में कबका हो चुका था।
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